BIHAR NATION is a new media venture of journalist Jay Prakash Chandra .This dot-in will keep you updated about crime, politics , entertainment and religion news round the clock.
RRB-NTPC: उसने कहा-3000 रुपये घर से आता है,1500रु. रूम रेंट, 400रू. गैस में..ऐसी होती है छात्रों की जिंदगी..जरूर पढें ये रिपोर्ट
जे.पी.चन्द्रा की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
बिहार नेशन: पटना में रहकर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले एक छात्र ने बताया कि मेरे घर से ख़र्च के लिए तीन हज़ार रुपया आता है। जिसमें से 1500 रुपया रूम रेंट में चला जाता है, अभी तो लाइब्रेरी बंद है नहीं तो लाइब्रेरी में 400 रुपया दे देते थे। सुबह का खाना चावल और दाल एक ही कुकर में बनाते हैं कि थोड़ा गैस का बचत होगा। मतलब खिचड़ी और चोखा खाकर गैस बचत करते हैं ।
जबकि तेल 200 रुपया हो गया है। मैं एक मिडिल क्लास फ़ैमिली से ताल्लुक़ रखता हूं। पहले इसी रूम में हम दोनों भाई रहते थे। भाई की नौकरी हो गई. मेरा सौभाग्य है कि मैं पटना में पढ़ पा रहा हूं।.” यह कहना है पटना के भिखना पहाड़ इलाक़े में रहकर नौकरी की चाहत में संघर्ष कर रहे 20 साल के एक लड़के हरेराम का।
वहीं हरेराम की ही तरह नौकरी की तलाश में भिखना पहाड़ी के एक छोटे से लॉज में रह रहे 25 वर्षीय अरूण कहते हैं, “घर वाले तो पूछ ही रहे हैं कि कैसा रिज़ल्ट रहा, तो बताने में स्वाभाविक तौर पर निराशा थी। बता दिए कि RRB-NTPC में नहीं हुआ लेकिन ग्रुप डी बचा है। लास्ट एग्ज़ाम है। तीन-चार महीने मुझे और रुकना पड़ेगा। उसके बाद हम कमरा खाली करके वापस चले जाएंगे। कोई न कोई काम ढूंढेंगे। ऐसा तो नहीं है कि ज़िंदगी से बढ़कर नौकरी है।”
लेकिन अरुण और हरेराम ने जो बातें कहीं, वो बिहार और पड़ोसी राज्यों के ज़्यादातर लड़कों के बारे में कही जा सकती हैं जो नौकरी पाने के लिए इसी तरह संघर्ष कर रहे हैं।बिहार के अलग-अलग ज़िलों से आए यह छात्र जहां रहकर तैयारी करते हैं उन्हें पटना में लॉज कहा जाता है।
उनके कमरों की हालत यह होती है कि कमरे शुरू होते ही ख़त्म हो जाते हैं। बिना खिड़की वाले इन कमरों में दिन के वक़्त बिना बल्ब जलाए कुछ भी नहीं देखा जा सकता। कमरों की दीवारों पर लगा होता है भारत और विश्व का मानचित्र और पीरियॉडिक टेबल। साथ ही लगी होती हैं किन्हीं महान विभूतियों की तस्वीरें और प्रेरणादायक पंक्तियां कि जोश कम न हो। कमरा जो घर से दूर उनके संघर्ष और तपस्या का केन्द्र होता है। लॉज में 10 से 15 छात्रों पर एक टॉयलेट होता है। कोरोना महामारी ने इनकी परेशानियां और बढ़ा दी हैं। ऑनलाइन क्लासेज़ के कारण इंटरनेट का ख़र्च बढ़ गया है।
रेलवे के एनटीपीसी के नतीजों के बाद बिहार और यूपी के छात्र 24 जनवरी से आंदोलन कर रहे हैं।उन्हें लग रहा है कि उनके साथ छल हुआ है और कोई उनकी बात सुनने वाला नहीं। घर-परिवार वालों का दबाव रहता है कि जल्द से जल्द नौकरी मिल जाए और नौकरी नहीं मिलने के कारण आसपास वालों का ताना भी सुनना पड़ता है। कई छात्र तो अब गांव-घर जाने से भी कतराने लगे हैं।
पटना में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे मदनपुर के इमतियाज (26 वर्ष) कहते हैं, “देखिए मैंने RRB-NTPC और ‘ग्रुप डी’ दोनों परीक्षाओं के लिए अप्लाई किया था। मेरा NTPC का रिज़ल्ट भी आया है। आगे के लिए तैयारी शुरू ही किए थे कि फिर से बवाल हो गया है। क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा?” वहीं पिता एक बिजली मेकैनिक हैं और घर के ख़र्चे का सारा दारोमदार उन पर ही है।
पैसों की तंगी के साथ नौकरी की तैयारी कर रहे सुशील कहते हैं, “10 रुपया का समोसा खाने के बजाय ज़ेरॉक्स कराके तैयारी करते हैं अपने ख़र्चे के लिए लॉकडाउन से पहले बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दिया करते थे, लेकिन यह बात भी ज़हन में चलती रहती है कि जो समय उधर दे रहे हैं उसमें तो अपनी तैयारी करें। ऐसा न हो कि ट्यूशन पढ़ाने के चक्कर में अपना रिज़ल्ट गड़बड़ा जाए।”
रेलवे और एसएससी की तैयारी कर रहे एक और छात्र नीरज से भी हमने बात की।. वे कहते हैं, “हम भी RRB-NTPC की परीक्षा दिए थे लेकिन पहले राउंड में नहीं हुआ। बाबूजी खेती-किसानी करते हैं। 3-4 बिघा खेत से ही घर परिवार चल रहा है, और अब तो छोटा भाई भी पटना आएगा। बजट बढ़ जाएगा।. बाबूजी के लिए यह बड़ा अमाउंट हो जाएगा। मेरी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जा रही।”
एक प्रतियोगी परीक्षा का उम्मीदवार सबसे पहले तो यह तय करता है कि उसे किस नौकरी की तैयारी करनी है, फिर उस दिशा में पढ़ाई शुरू करता है और परीक्षा की अधिसूचना जारी होने का इंतज़ार करता रहता है। इसी बीच अगर किसी ऐसी नौकरी की अधिसूचना आ जाए जिसकी तैयारी वह नहीं कर रहा था तो भी वह ये सोचते हुए आवेदन कर देता है कि जिसकी तैयारी वह कर रहा है पता नहीं उसका आवेदन कब आएगा? जो सामने है उसे क्यों छोड़ा जाए?
घर से आने वाली फ़ोन की घंटी डराने लगती है। एक मिनट की बातचीत में भी परीक्षा की तारीख़ और तैयारी की ही बातें आती हैं। परीक्षाओं की तारीख़ आने के बाद अब कोविड के समय में इस बात की भी चिंता होती है कि कहीं नई लहर न आ जाए। उस पर परीक्षा के पर्चे लीक होने का डर। रिज़ल्ट आने के बाद भी इस बात का डर बना रहता है कि कोई कोर्ट न चला जाए।
लेकिन यह सवाल तो कई लोगों के ज़हन में होगा कि हिन्दी पट्टी के इतने सारे छात्र सरकारी नौकरियां ही क्यों चाहते हैं? ,”पहला तो यह कि जीने के लिए जीविका होनी चाहिए। जीने के लिए कुछ खेत चाहिए और खेती के लिए खाद और पानी जैसी अन्य सुविधाएं, लेकिन जब आप हिन्दी पट्टी को देखेंगे तो पाएंगे कि खेती घाटे का सौदा हो चुकी है। तो छोटे और मंझोले किसान पहले से ही पलायन कर गए हैं।”
दूसरी बिहार में एक बड़ी आबादी भूमिहीनों की है जो कहीं गिनती में ही नहीं हैं। वो कहते हैं, “बंटाई पर खेती करने वालों को तो स्टेट की ओर से कोई ग्रांट भी नहीं मिल पाता। तो ऐसे घरों के बच्चों के लिए इनफ़ॉर्मल सेक्टर ही एक उम्मीद थी, और आज वो भी तबाह हो चुका है। जैसे नोटबंदी के बाद आई जीएसटी और फिर कोरोना की लहर ने एक बड़ी आबादी को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।”
वहीं “हमारे गांव-समाज में हमेशा से यह भाव रहा है कि ग़रीबी दूर करने और सम्मान पाने के लिए नौकरी ज़रूरी है. वैसे तो उदारीकरण आने के साथ ही फ़ॉर्मल सेक्टर में नौकरियां कम हुईं, लेकिन साल 2016 के बाद से तो वैकेंसी निकलने का सिलसिला भी लगभग थम सा गया. तो नौजवानों को कहीं भी कोई नौकरी की उम्मीद दिखती है तो वे पागलों की तरह फ़ॉर्म भरते हैं.”
इन सभी बातों के दौरान कई बार छात्रों के गले रुन्ध गये। उन सभी का कहना था कि हमलोगों को केंद्र की मोदी सरकार से बहुत उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका ।
( मेरा यह आर्टिकल अपने छात्र जीवन के अनुभव और छात्रों से बातचीत पर आधारित है)