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जरूर चिंतन करें: बिहार में जातिवाद के नाम पर कौन पार्टियां कर रही हैं पिछड़े -दलितों का शोषण, निकाय चुनाव रोक के लिए कौन है दोषी ?

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जे.पी.चन्द्रा की विशेष रिपोर्ट

बिहार नेशन: बिहार में जातिवाद हमेशा से हावी रहा है। यहाँ के तमाम विकासात्मक कार्यों को भी जाति की हवा सारा राजनीतिक समीकरण बिगाड़ देती है। प्रदेश के बुद्धिजीवियों का मानना है कि आप कितनी भी विकास के कार्य बिहार में कीजिए लेकिन चुनाव के समय जातीय समीकरण हावी हो जाता है। एक बार फिर से बिहार में जातीय समीकरण के द्वारा आरक्षण का मुद्दा उठाया जा रहा है।

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हालांकि ये तमाम बैकवर्ड और दलितों की पार्टियां केवल इन वर्ग के लोगों का केवल आरक्षण और जातीय कार्ड खेलकर उनका वोट लेने से मतलब रखती हैं और उनका दोहन करती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आप भी जानते हैं कि शुद्ध रूप से राजद सुप्रीमों लालू यादव की पार्टी और जेडीयू सुप्रीमों नीतीश कुमार की पार्टी बिहार की गद्दी पर आज दो दशक से अधिक समय से जमे हैं । लेकिन पिछड़ों और दलितों की हालत सामाजिक, आर्थिक और राजनीति में क्या है ? वह आप सभी जानते हैं।

आज भी ये वर्ग अपने आप को कभी लालू प्रसाद तो कभी नीतीश कुमार के नाम पर ठगता आया है। लेकिन अभी भी इस वर्ग के लाखों परिवार ऐसे हैं जो अपनी जिंदगी बसर करने के लिए दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करते हैं । उनके पास रहने के लिए छत नहीं है। दो जून की रोटी के लिए उनके पास रोजगार नहीं है। ऐसे में अगर तमाम राजनीतिक पार्टियां जातिवाद और आरक्षण की जगह विकास की बात करें तो शायद बिहार के लोगों की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल जाएगी।

लेकिन सवाल वही आता है कि ये करेगा कौन? क्योंकि जनता जिसे चुनाव जिताकर भेजती है वह भी जाति आधारित वोटों से जीतकर जाते हैं। ऐसे में ये जनप्रतिनिधि भी जातिय समीकरण को खूब हवा देते हैं और केवल अपनी झोली भरने में मस्त रहते हैं।

तो क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण नहीं कर सकते हैं जिसमें किसी तरह के जातीय भेदभाव और सांप्रदायिकता का रंग न भरा हो। बिल्कुल ऐसा कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए हमें ऐसे उम्मीदवारों का चुनाव करना होगा जिसकी छवि साफ-सुथरी हो। किसी भष्टाचार में संलिप्त न हो। उसके अंदर जातीय नफरत नहीं हो। सारे वर्गो को साथ लेकर चलने की हिमाकत रखता हो।

दरअसल ये सब लिखने के पीछे मेरा मकसद हाल में नगर निकाय चुनाव पर हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई रोक है। क्योंकि हाईकोर्ट द्वारा चुनावों पर रोक लगाने से एक बार फिर से आरक्षण का जिन्न बाहर निकल गया है। फिर से OBC आरक्षण के मुद्दे पर पटना हाईकोर्ट के फैसले से नगर निकाय चुनाव टलने के बाद बिहार में आरक्षण की सियासी आग भड़क गई है। इस आग में सियासत तेजी से सुलग रही है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने बीजेपी को आरक्षण विरोधी बताते हुए आरक्षण की आग में बीजेपी के भस्म होने की चेतावनी दे रहे हैं, तो जवाब बीजेपी की तरफ से भी दिया जा रहा है। साफ है पटना हाईकोर्ट के फैसले के बहाने एक दूसरे पर वार-पलटवार के पीछे वजह है पिछड़ा-अतिपिछड़ा वोटबैंक की सियासत।

दरअसल बिहार की सियासत में पिछड़ा-अतिपिछड़ा वर्ग एक निर्णायक भूमिका में माने जाते हैं। बिहार में अति पिछड़ी जातियां किंगमेकर मानी जाती हैं। पिछड़ा अति पिछड़ा वोटों का प्रतिशत बिहार में लगभग 45 फीसदी के आसपास है, 25 फीसदी के आसपास अति पिछड़ा वोट बैंक है। 90 के दशक में लालू ने पिछड़ों के सहारे 15 सालों तक बिहार में राज किया, तो नीतीश ने अतिपिछड़ों को अपना कोर वोटबैंक बनाकर अपना दबदबा कायम रखा है। वहीं, बीजेपी भी पिछड़ा-अतिपिछड़ा वोटबैंक में सेंध लगाकर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में है।

ऐसे में राजनीतिक दलों के निशाने पर पिछड़ा अति पिछड़ा वोट बैंक रहता है, लेकिन कहने के लिए तो बीजेपी, आरजेडी, जेडीयू समेत सभी दल अतिपिछड़ों की हितैषी होने का दंभ भरते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि बिहार में पिछले 6 साल से पिछड़ा अति पिछड़ा वर्ग आयोग निष्क्रिय हालत में है. ज़ाहिर है पिछड़ों-अतिपिछड़ों को साधने उनके नाम पर सियासत तो खूब होती रही, लेकिन एक अदद आयोग के गठन में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।

इस तरह से पिछड़ा-अतिपिछड़ा की सियासत समझिए

पिछड़ा-अति पिछड़ा वोटों का प्रतिशत लगभग 45 फीसदी है।

25 फीसदी के आसपास अति पिछड़ा वोट बैंक है।

बिहार में अति पिछड़ी जातियां किंगमेकर मानी जाती हैं।

राज्य में कुल 144 जातियां ओबीसी में शामिल हैं।

113 जातियां अति पिछड़ा 31 जातियां पिछड़ा वर्ग के तहत हैं।

यादव 14%, कुशवाहा यानी कोइरी 6%, कुर्मी 4% है।

इसके अलावा बनिया की आबादी भी अच्छी खासी है।

निषाद, बिंद, केवट, प्रजापति, कहार, कुम्हार,नोनिया सहित कई जातियां भी हैं।

सियासी दलों की नज़रें पिछड़ा-अतिपिछड़ा वोट बैंक पर टिकी हैं।

पिछड़े वर्ग के विनोद तावड़े को बीजेपी ने प्रभारी बनाया गया।

आरजेडी कार्यकर्ताओं को अतिपिछड़ों को जोड़ने का तेजस्वी ने टास्क दिया है।

नीतीश ने अतिपिछड़ा वर्ग को आगे कर अतिपिछड़ों में पैठ बनाई।

अतिपिछड़े छात्रों के लिए छात्रावास, सिविल सेवा प्रोत्साहन योजना शुरु की।

पंचायती राज में अतिपिछड़ों को आरक्षण के ज़रिए पकड़ बनाने की कोशिश की।

ये भी सवाल है कि अति पिछड़े आयोग का गठन क्यों नहीं किया गया ?

बिहार में पिछले 6 साल से पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग आयोग निष्क्रिय हालत में है।

127 वें संशोधन के ज़रिए मोदी सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया।

10 अगस्त 2021 को ओबीसी आरक्षण को लेकर 127 वां संविधान संशोधन बिल पारित किया गया।

संविधान संशोधन से राज्य सरकारों को सूची तैयार करने का अधिकार मिल गया।

राज्य सरकार OBC लिस्ट को लेकर अंतिम फैसला ले सकेगी।बावजूद इसके राज्य सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया।

जबकि इस दौरान सत्ता में नीतीश के साथ बीजेपी आरजेडी दोनों पार्टियां रहीं।

वहीं आपको बता दें कि कोर्ट द्वारा निकाय चुनाव पर बड़ा फैसला दिया गया है जिसके लिए इसी महीने के 10 और 20 अक्टूबर को निकाय चुनाव होने थे। लेकिन चुनाव से पहले आयोग का गठन नहीं किया गया , बगैर ट्रिपल टेस्ट के पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया गया । वहीं सरकार ने OBC के अलावा EBC को 20% आरक्षण दिया। जबकि OBC,EBC मिलाकर आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा हो गई।

इन्हीं सब मुद्दों को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पटना हाईकोर्ट ने दो सुनवाई के बाद नगर निकायों के चुनाव पर रोक लगा दी

(ये मेरे निजी विचार हैं )

एडिटर इन चीफ़ 

जे.पी. चन्द्रा

 

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